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Friday, March 18, 2011

happy holi

Bright colors,
water balloons,
lavish gujiyas and melodious songs
are the ingredients of perfect Holi.
Wish you a very happy and wonderful Holi.

Wednesday, March 16, 2011

Supermoon or superhype?

KOCHI: If a set of astronomers are to be believed, March 19, which is just two days away, could well be our last day on planet Earth. Playing the villain will be none other the moon, despite us earthlings having sung about its beauty and charm for centuries. On this day the moon will turn into its deadly avatar - the supermoon, and come a bit too close for comfort to the earth - 356,577 kilometres, to be specific.Well, that doesn’t sound very close, it might seem. But these scientists don’t think so. The supermoon or the lunar perigee, as the phenomenon is called, will trigger earthquakes, tsunamis and volcanic eruptions, according to their calculations. And the tsunami which hit Japan last Friday added fuel to the fire.The doomsday scientists point out that this year supermoon coincides with a full moon. They remind you ominously that there were instances of extreme weather conditions in the previous supermoon years as well. The England hurricane of 1938 and the Hunter Valley floods of 1955 both happened during lunar perigees besides Cyclone Tracy in 1974 and Hurricane Katrina in 2005.So does that mean that we should try to fulfil our last wishes on these few precious days left and maybe seek forgiveness from all whom we have wronged? British weatherman John Kettley pooh poohs all such notions.“A moon can’t cause a geological event like an earthquake but it will cause a difference to the tide. If that combines with certain weather conditions, then that could cause a few problems for coastal areas.”That’s it.The moon can affect tides, but not on such a large scale. Closer to home, Dr V C Kuriakose, Department of Physics, Cusat, also feels that a mountain is being made out of a mole-hill. “Supermoon happens every 20 years and I don’t see any possibility of it leading to a natural calamity. The moon will appear brighter and seem closer that day,” he says.Most astronomers are of the opinion that the supermoon and the Japan tsunami are not even remotely connected to each other. None other than NASA’s Dave Williams has clarified the matter. The astronomer told a news channel that at the time of the tremor, the moon was at its farthest point from the Earth. “Unless the Earth somehow knew that the supermoon was coming, I can’t imagine any scientific connection between the two events.”So that seems to be the final word on the matter. All you need to do on March 19 is keep an eye on the sky after nightfall and not miss out on the spectacular sight of the moon looming large and bright. If you have a powerful pair of binoculars, you might be lucky enough to spot a crater or two, maybe.

Friday, March 4, 2011

NASA's Glory to study aerosol's role in climate change.


The satellite Glory launches this week as part of a NASA mission to enhance the agency's modeling of the Earth's climate and reduce uncertainties about the causes and consequences of climate change. Among other things, the craft will look at how aerosols affect climate. It will also help maintain a record of total solar irradiance.

Aerosols and solar energy influence the total amount of energy entering and exiting the Earth's atmosphere. Maintaining accurate measurements is important in anticipating future changes to our climate and how they may affect life.


Friday, November 26, 2010

Dear all

We make a living by what we get, we make a life by what we give!!!

Friday, November 5, 2010

Happy Diwali

पग-पग पे ‘तम’ को हरती हों दीप-श्रृंखलाएँ


जीवन हो एक उत्सव, पूरी हों कामनाएँ


आँगन में अल्पना की चित्रावली मुबारिक

फूलों की, फुलझड़ी की, शब्दावली मुबारिक


‘तम’ पर विजय की सुन्दर दृश्यावली मुबारिक

दीपावली मुबारिक, दीपावली मुबारिक

Tuesday, October 5, 2010

Electroanalytical techniques in the study of organic molecules

"Electroanalytical techniques in the study of organic molecules."
lecture by Prof Rajeev Jain,Jeewaji University, Gwalior

USIC, DEI, Dayalbagh, Agra
1500 hrs

'ई - कचरे' का बढ़ता खतरा

आपने कभी गौर किया है कि कबाड़े वाले को आप घर का जो कबाड़ बेचते रहे हैं उसमे अब पुराने अखबारों , बोतल - डिब्बों , लोहा - लक्कड़ के साथ एक खतरनाक चीज़ जुड़ गयी है --- - कचरा. पीसी पुराना हो जाए तो उसे अपग्रेड कराना हमें झंझट लगता है। इससे ज्यादा सुविधाजनक लगता है नया खरीदना, लेकिन तकनीक के साथ कदमताल के इस जुनून में एक पल ठहरकर क्या हम सोचते हैं कि पुराने पीसी का क्या होगा? पीसी ही क्यों, मोबाइल, सीडी, टीवी, रेफ्रिजरेटर, एसी जैसे तमाम इलेक्ट्रॉनिक आइटम हमारी जिंदगी का इतना अहम हिस्सा बन गए हैं कि पुराने के बदले हम फौरन लेटेस्ट तकनीक वाला खरीदने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन पुरानी सीडी व दूसरे ई-वेस्ट को डस्टबिन में फेंकते वक्त हम कभी गौर नहीं करते कि कबाड़ी वाले तक पहुंचने के बाद यह कबाड़ हमारे लिए कितना खतरनाक हो सकता है, क्योंकि पहली नजर में ऐसा लगता भी नहीं है। बस, यही है ई-वेस्ट का साइलेंट खतरा। लोगों की बदलती जीवन शैली और बढ़ते शहरीकरण के चलते इलेक्ट्रोनिक उपकरणों का ज्यादा प्रयोग होने लगा है मगर इससे पैदा होने वाले इलेक्ट्रोनिक कचरे के दुष्परिणाम से आम आदमी बेखबर है . - कचरे से निकलने वाले रासायनिक तत्त्व लीवर , किडनी को प्रभावित करने के अलावा कैंसर, लकवा जैसी बीमारियों का कारण बन रहे हैं . खास तौर से उन इलाकों में रोग बढ़ने के आसार ज्यादा हैं जहाँ अवैज्ञानिक तरीके से - कचरे की रीसाइक्लिंग की जा रही है .

बिजली से चलनेवाली चीजें जब बहुत पुरानी या खराब हो जाती हैं और उन्हें बेकार समझकर फेंक दिया जाता है तो उन्हें -वेस्ट कहा जाता है। घर और ऑफिस में डेटा प्रोसेसिंग, टेलिकम्युनिकेशन, कूलिंग या एंटरटेनमेंट के लिए इस्तेमाल किए जानेवाले आइटम इस कैटिगरी में आते हैं, जैसे कि कंप्यूटर, एसी, फ्रिज, सीडी, मोबाइल, सीडी, टीवी, अवन आदि। -वेस्ट से निकलनेवाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देते हैं। फसलों और पानी के जरिए ये तत्व हमारे शरीर में पहुंचकर बीमारियों को जन्म देते हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वाइरनमेंट(सीएसई) ने कुछ साल पहले जब सर्किट बोर्ड जलानेवाले इलाके के आसपास शोध कराया तो पूरे इलाके में बड़ी तादाद में जहरीले तत्व मिले थे, जिनसे वहां काम करनेवाले लोगों को कैंसर होने की आशंका जताई गई, जबकि आसपास के लोग भी फसलों के जरिए इससे प्रभावित हो रहे थे।

भारत में यह समस्या 1990 के दशक से उभरने लगी थी . उसी दशक को सुचना प्रौद्योगिकी की क्रांति का दशक भी मन जाता है . पर्यावरण विशेषज्ञ डॉक्टर . के. श्रीवास्तव कहते हैं, " - कचरे का उत्पादन इसी रफ़्तार से होता रहा तो 2012 तक भारत 8 लाख टन - कचरा हर वर्ष उत्पादित करेगा ." राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के पूर्व निदेशक डॉ श्रीवास्तव कहते हैं कि " - कचरे कि वजह से पूरी खाद्य श्रंखला बिगड़ रही है ." - कचरे के आधे - अधूरे तरीके से निस्तारण से मिट्टी में खतरनाक रासायनिक तत्त्व मिल जाते हैं जिनका असर पेड़ - पौधों और मानव जाति पर पड़ रहा है . पौधों में प्रकाश संशलेषण कि प्रक्रिया नहीं हो पाती है जिसका सीधा असर वायुमंडल में ऑक्सीजन के प्रतिशत पर पड़ रहा है . इतना ही नहीं, कुछ खतरनाक रासायनिक तत्त्व जैसे पारा, क्रोमियम , कैडमियम , सीसा, सिलिकॉन, निकेल, जिंक, मैंगनीज़, कॉपर, भूजल पर भी असर डालते हैं. जिन इलाकों में अवैध रूप से रीसाइक्लिंग का काम होता है उन इलाकों का पानी पीने लायक नहीं रह जाता.

असल समस्या -वेस्ट की रीसाइकलिंग और उसे सही तरीके से नष्ट (डिस्पोज) करने की है। घरों और यहां तक कि बड़ी कंपनियों से निकलनेवाला -वेस्ट ज्यादातर कबाड़ी उठाते हैं। वे इसे या तो किसी लैंडफिल में डाल देते हैं या फिर कीमती मेटल निकालने के लिए इसे जला देते हैं, जोकि और भी नुकसानदेह है। कायदे में इसके लिए अलग से पूरा सिस्टम तैयार होना चाहिए, क्योंकि भारत में सिर्फ अपने मुल्क का -वेस्ट जमा हो रहा है, विकसित देश भी अपना कचरा यहीं जमा कर रहे हैं। सीएसई में इन्वाइरनमेंट प्रोग्राम के कोऑर्डिनेटर कुशल पाल यादव के मुताबिक, विकसित देश इंडिया को डंपिंग ग्राउंड की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि उनके यहां रीसाइकलिंग काफी महंगी है। हमारे यहां -वेस्ट की रीसाइकलिंग और डिस्पोजल, दोनों ही सही तरीके से नहीं हो रहे। इसे लेकर जारी की गईं गाइडलाइंस कहीं भी फॉलो नहीं हो रहीं।

कुल -वेस्ट का 99 फीसदी हिस्सा तो सही तरीके से इकट्ठा किया जा रहा है, ही उसकी रीसाइकलिंग ढंग से की जाती है। आमतौर पर सामान्य कूड़े-कचरे के साथ ही इसे जमा किया जाता है और अक्सर उसके साथ ही डंप भी कर दिया जाता है। ऐसे में इनसे निकलनेवाले रेडियोऐक्टिव और दूसरे हानिकारक तत्व अंडरग्राउंड वॉटर और जमीन को प्रदूषित कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को -वेस्ट रीसाइकलिंग के लिए कानून बनाना होगा, क्योंकि आनेवाले दिनों में खतरा और बढ़ेगा। कबाड़ी -वेस्ट को मेटल गलानेवालों को बेचते हैं, जो कॉपर और सिल्वर जैसे महंगे मेटल निकालने के लिए इन्हें जलाते हैं या ऐसिड में उबालते है। ऐसिड का बचा पानी या तो मिट्टी में डाल दिया जाता है या फिर खुले में फेंक दिया जाता है। यह सेहत के लिए काफी नुकसानदेह है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि भारत में रीसाइकल करने के लिए कोई साफ कानून है और ही गाइडलाइंस को फॉलो करना अनिवार्य है।एनवायरनमेंट एनजीओ 'टॉक्सिक लिंक' के डायरेक्टर रवि अग्रवाल का कहना है कि हमारे देश में सालाना करीब चार-पांच लाख टन -वेस्ट पैदा होता है और 97 फीसदी कबाड़ को जमीन में गाड़ दिया जाता है। स्क्रैप डीलर इस खतरनाक चेन की मुख्य कड़ी हैं, क्योंकि वे पुराने पीसी, रेडियो टीवी कस्टमर्स से खरीदते हैं और उनके हिस्सों को अलग-अलग कर चोर बाजार में बेच देते हैं। बचे हुए सामान को कचरे में डाल दिया जाता है।'

- कचरे के दुष्परिणाम से कोई भी अंजान नहीं है . मगर अभी तक इसे रोकने के लिए अपने देश में तो कोई कानून है और ही विदेश से आने वाले - कचरे को रोकने के लिए कोई कानून है . अगर सरकारें तेजी से बढ़ रही इस समस्या का निदान जल्द से जल्द नहीं निकालेंगी तो प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ का परिणाम हम सबको उठाना पड़ सकता है . सबसे पहले जरुरत है सख्त कानून बनाने और उतनी ही सख्ती से पालन कराने की ताकि - कचरे की अवैध रीसाइक्लिंग पर पूर्णविराम लग सके .

सरकारों से इतर हम और आप मिलकर भी इस समस्या पर काफी हद तक काबू पा सकते हैं . -वेस्ट से निपटने करने का सबसे अच्छा मंत्र रिड्यूस, रीयूज और रीसाइकलिंग का है। यानी इलेक्ट्रॉनिक्स को संभलकर और किफायत से इस्तेमाल करें, पुराने आइटम को जरूरतमंद को दे दें या बेच दें और जिन चीजों को ठीक कराया जा सके, उन्हें सही ढंग से रीसाइकल कराएं।

डॉ शशांक शर्मा

दयालबाग विश्वविद्यालय , आगरा

(लेखक नवयुग संस्था से जुड़े हैं )

shashank .enviro@gmail.com